Saturday, March 27, 2010

ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं / कृष्ण बिहारी 'नूर'


ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं,
और क्या जुर्म है पता ही नहीं
इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं,
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं
सच घटे या बड़े तो सच न रहे,
झूठ की कोई इन्तहा ही नहीं
जड़ दो चांदी में चाहे सोने में,
आईना झूठ बोलता ही नहीं